कथा-गल्प

पूर्वोत्तर मैथिल

मिथिला सांस्कृतिक समन्वय समितिक त्रैमासिक पत्रिका
पूर्वोत्तर मैथिलक अप्रैल-जून 2010

प्रेम-कथा
१.गजेन्द्र ठाकुर- तस्कर
२.संगी- जगदीश प्रसाद मण्डल


१.


गजेन्द्र ठाकुर


तस्कर



शालिग्राममे छिद्र होइत अछि, कारी पाथर मात्र नर्मदामे भेटैत अछि। जमसम गाममे सभ किछु बदलल अछि, ग्रामदेवताक डिहबार स्थानसँ लऽ कऽ सभ ठाम मुदा किछु ने किछु लाक्षणिक वस्तु देखिये रहल छी। मुदा हमर गाथाक कोनो लक्षण एतए नहि अछि।
गाछी आ बाध बोन सभटा पतरा गेल अछि। सए बर्ख। बिज्झू आमक ओ गाछी। बीहरि सभसँ भरल। भाँति-भाँतिक चिड़ै-चुनमुनी आ छोट पैघ जीव-जन्तु। नेना रही। जेठसँ अगहन खुरचनिञा लत्ती लग गप करैत हम आ मालती। कहियो फागुन-चैतमे जाइ तँ लवङलताक लत्ती लग गप करी। मलकोका, कुमुद, भेंट, कमलगट्टा कन्द, रक्ताभ बिसाँढ़क ताकिमे कादो-पानिमे घुमैत हम आ ओ। खुल्ले पएर, काँट-कूसक बीच तड़पान-तड़पि कऽ कुदैत। आमक कलममे सतघरिया खेलाइत। हम आ मालती। करबीरसँ बेढैत अपन काल्पनिक-घर। एकहरा, दोहारा, जटाधारीक बीआ भरि साल जोगबैत मालती। मालती सेहो होएत हमरे बएसक। माए कहैत छल जे मालती छह मासक जेठ छल हमरासँ मुदा पिता कहैत छला जे छह मासक छोट अछि मालती हमरासँ। आ पिता से किएक कहै छलाह से बादमे जा कऽ ने बुझलिऐ।
भरि आमक मास आमक गाछीक दिनुका ओगरबाहीक भार हमरे दुनू गोटेपर छल। मुदा साँझ होएबासँ पहिने हमर मामा बछरू आ मालतीक बाबू खगनाथजी कलम आबि जाइत छलाह, रातिक ओगरबाहीक लेल। मुदा हमर सभक गाथाक कोनो लक्षण एतए सेहो नहि अछि। हमर सभक माने केशव आ मालतीक।
मुदा ओहि पक्काक डिहबार स्थान लग कारी रंगक शालिग्राम हम ताकि रहल छी। छिद्रयुक्त शालिग्राम। एकटा नुका कऽ रखने छलहुँ एत्तै कतहु।
गौँआ सभ धरि खूब खर्चा कएने अछि एहि डिहबारक स्थानक मंडप बनएबामे। पहिने तँ किछुओ नञि रहै। राजा जे बनेलक पोखरिक घाट आ तकर कातमे पक्काक मन्दिर सएह। मुदा बेचारो पूजा कैयो नञि सकलाह। लाजक द्वारे हमर एहि गाममे आबियो नञि सकलाह।

हम केशव, गाम मंगरौनी, नरौने सुल्हनी, पराशर गोत्र, कवि मधुरापतिक पुत्र।
मालती- माण्डर सिहौल मूलक काश्यप गोत्री खगनाथ झा, गाम जमसमक पुत्री मालती।
खगनाथजी आ हमर मामा बछरूमे भजार लागल। जमसममे हमर मामा गाम। मामागाम धरि सुखितगर, हम सभ तँ दरिद्रे। से हम एक मास गरमी तातिल आ पन्द्रह दिन दुर्गापूजासँ छठि धरि मामेगाममे रहैत रही। गरमी तातिलमे सपेता पकबासँ लऽ कऽ कलकतिया आम पकबा धरि गाछी ओगरी। आ दुर्गापूजामे खष्ठीसँ लऽ कऽ भसान धरि दुर्गापूजा देखी। फेर दीयाबातीमे कनसुपती जराबी आ छठिमे गाम घुरि जाइ। आ बीच-बीचमे तँ जाइत रहबे करी।
मालती संगे खूब झगड़ा सेहो होइ छल। चौथामे रही प्रायः। गरमी तातिलमे मामा गामक आमक गाछी गेल रही। कोनो गपपर मालतीसँ रूसा-फुल्ली भऽ गेल। धरि बौसलक मालतीये। आ बौसबो कोना केलक।
-हम अहाँसँ घट्टी मानै छी ओहि गपक लेल।
-कोन गप।
-जइ गपपर अहाँसँ झगड़ा भेल।
आ ओ गप नञि हमरा मोन पड़ल आ ने मालतीकेँ। मुदा फेर मालतीसँ कहियो कोनो गपपर हम झगड़ा नञि केलहुँ। वएह मुँह फुलाबए तँ हमही पुछिऐ जे कोन गपपर मुँह फुलेलहुँ से तँ मोन नहिये हएत तखन अनेरे ने झगड़ा करै छी।
गरमी तातिलक बाद दुर्गापूजा आ दुर्गापूजाक छुट्टीक बाद गरमी तातिलक बाट जोहै लगलहुँ। से कहियासँ से की मोन अछि ?

पिता गाममे बटाइ करथि। मिडिल स्कूलक बाद कोनो स्कूल नहिये रहै आस-पड़ोसमे। संस्कृत पाठशाला सभ बन्ने भऽ गेल रहै।
से तातिल बला कोनो बात आब रहबे नञि करए। भरि साल बुझू काजे आकि तातिले। नाना-नानी जिबिते रहथि। माएक लियौन कराबए लेल कियो ने कियो आबिये जाइ छल। हमहुँ दू चारि मासमे मामा गाम कोनो लाथे भइये अबैत छलहुँ।
गामपर कएक टा समस्या। नञि जानि कोन भाँज रहै जे पाँजिक रक्षाक गप पिताक मुँहे सुनैत रहैत छलहुँ। आ से हमर बियाह मालती संगे भेने टा सँ सम्भव, सेहो हुनका मुँहे उचरैत छलन्हि।
मालती हमर संगी मुदा एहि गप-शपसँ ओकर हमर दूरी बढ़ि जेकाँ गेल। जे सहजता हमरा आ ओकरा मध्य छल से खतम होअए लागल। जेना ओकरा देखिते हमर मोनमे पत्नीक छवि नजरि आबै लागल छल, तहिना तँ ओकरो मोनमे ने अबैत होएतैक।

हमर गाम आएल रहथि बछरू मामा।
मधुरापति- “बछरू आब अहींक हाथमे हमर सभटा इज्जत अछि। खगनाथक पुत्री केशवक लेल सर्वथा उपयुक्त। सुन्दरि सुशील अछि तँ केशव सेहो जबर्दस्त अछि। एक्के बतारीक अछि मुदा किछु दिनुका छोटे अछि मालती। हे। अहाँकेँ तँ ई बुझले अछि जे ७०० टाका लड़कीबलाकेँ दए हमर विवाह करा हमर पिता पाँजि बनाओल। मुदा आब जमीन जत्था नहि अछि। काल्हि घोड़ीकेँ चिलम पियाए ओहिपर चढ़ि आएल छलाह पञ्जीकार। साफे कहि देलन्हि जे मात्र खगनाथेक पुत्रीसँ अधिकारमाला बनैत अछि। आ से नहि भेने पुबारिपार श्रोत्रियक श्रेणीसँ चुत भऽ जाएब हम”।
बछरू- “हम पुछै छियन्हि खगनाथसँ। संगी तँ छथि मुदा हुनकर मोनमे की छन्हि से वएह ने कहताह”।

आ ने जानि किएक प्रेमसँ भरि गेल छल हमर मोन। बिदा भऽ गेल रही हुनका संगे।

मालती- “केशव। तोहर कत्तौ दोसर ठाम बियाह भऽ जएतौक तखन हमरासँ भेँट कोना होएतौक”।
केशव- “आ तोहर ककरो दोसरासँ बियाह भऽ जएतौक तँ एहन अनर्गल प्रश्न सभ ककरासँ करमे”?
मालती- “मुदा एकटा गप बुझलहीं। काल्हि तोहर मामा हमर पितासँ हम्मर-तोहर बियाहक चरचा कऽ रहल छलाह”।
केशव- “तखन”।
मालती- “नञि, सभटा तँ ठीके मुदा तखने दरभंगा राजाक दूत बनि एक गोटे आबि गेलाह आ कहए लगलाह जे राजाक समाद अछि”।
केशव- “राजाक कोन समाद”।
मालती- “कियेने गेलिऐ। मुदा हमर पिताकेँ ओ दूत कहलन्हि जे बेटीक बियाहक चर्च किछु दिन रुकि कऽ करबाक लेल”।
केशव- “तोहर सुन्दरताइ तँ छौहे तेहने। राजोक नजरिमे तोरा लेल कोनो लड़का अभरल छै की”?
मालती- “कियेने गेलिऐ”।
राजाक मन्त्रीक सवारी खगनाथक दरबज्जापर! दुइये दिनमे कीसँ की भऽ गेल। ओ दूत जा कऽ किछु कहि तँ नञि अएलै जे खगनाथ अपन बेटीक बियाह लेल धरफरायल छथि। से सतर्की देखियौ। लोक सभ गर्दमगोल करैत। सभ स्वागतमे जुटल। आ हमहुँ सभ चीजक जाएजा लैत रही। साँझ होइत-होइत हमर पिता सेहो आबि गेल छलाह। ओम्हर राजाक मन्त्रीक स्वारी गेल आ एम्हर हमर पिता माथपर हाथ रखने गुम्म रहि गेलाह। खगनाथ सेहो मौन।
राजा अपन बियाह मालतीसँ करबाक प्रस्ताव खगनाथ लग पठेने छलाह। महाराज बीरेश्वर सिंह। कहू तँ। अपने चालीससँ उपरे होएत आ एहि तेरह-चौदह बरखक बचियासँ बियाहक प्रस्ताव। खगनाथक की ओकाति जे ओकरा मना करितथिन्ह।
हमर पिता चिन्तित जे आब पाँजि नहि बाँचत।
ओहि दिन साँझमे कोनटा लग मालतीसँ हमर भेँट भेल। करजनी सन-सन आँखि फुलल, जेना हबोढ़कार भऽ कानल होअए। की सभ गप केलहुँ मोनो नञि अछि। हँ आखिरीमे हम कहने धरि रहिऐ जे सभ ठीक भऽ जाएत।
जमसममे बीरेश्वर सिंह लेल लड़की निहुछल गेल!
जमसम गाममे पोखरि खुनाओल गेल। ओतए मन्दिर बनल जे राजा दोसराक मन्दिरमे कोना पूजा करताह।
मुदा हमहुँ रही मधुरापति कविक पुत्र केशव।
बियाहक दिन लगीचे रहै आ दोसर कोनो दिन सेहो नञि रहै। आ ओहि दिन मालतीसँ सभ गप भइये गेल छल।
कटही गाड़ीमे आगूक चाप आ पाछूक उलाड़, आगाँक चाप नीक कारण पाछाँ उलाड़ भेलापर गाड़ी उनटि जाएत। मुदा हम ओहिना गाड़ीकेँ उलाड़ केने बँसबिट्टी लग मालतीक इन्तजारीमे रही।
ओ आयलि आ गाड़ीपर बैसि गेलि। जे कियो रस्तामे देखए से डरे नञि टोकए जे गाड़ी ने उनटि जाइ एकर। एकटा पतरंगी चिड़ै देखि उल्लसित होअए लागलि मालती तँ आँगुरसँ हम ओकर ठोढ़ बन्न कऽ देलिऐ।
मालतीकेँ लऽ कऽ गाम आबि गेलहुँ, धोती रंगाइत छल। फेर जे मालतीक पता करबाक लेल आएल रहए तकरा पकड़ि राखल। आ ’कन्यादान के करत’क अनघोल भेलापर ओकरा सोझाँ अनलहुँ जे कन्यादान यएह करबाओत।
सलमशाही चमरउ जुत्ता उतारि धोती पहीरि हम विवाह लेल विध सभ पूर्ण केलहुँ। मालतीक सीथमे सिनुर हमरे हाथसँ देब लिखल जे रहै।

तकर बाद राजा बीरेशवर सिंह की करताह?
पञ्जीकारकेँ बजा कऽ हमर नाममे तस्कर उपाधि लगबाओल। मुदा मधुरापति अपन पुत्रक प्रति गर्वोन्नत्त। बाघक बेटा बाघ। पाञ्जि आ पानि अधोगामी मुदा खगनाथ झा- श्रीकान्त झा पाँजि, तस्कर केशवक श्रोत्रिय ओहिठाम विवाह कएलापर श्रोत्रिय श्रेणी विराजमान रहतन्हि।
आ सए बर्खक बाद आइ एहि गाममे कोनो नाटक होएतैक। सुल्ताना डाकू।
आ हम तस्कर केशव, मंगरौनी नरौने सुल्हनी- पराशर गोत्र, कवि मधुरापतिक पुत्र अपन गाथाक कोनो एकटा लक्षण एतए जमसम गाममे ताकि रहल छी। मुदा राजा बीरेश्वर सिंहक वएह पोखरि आ आब ढ़नमनाएल मन्डिल देखै छी, बेचारो घुरि कऽ लाजे एहि गाममे एबो नहि केलाह।
यएह पोखरि आ ढ़नमनाएल मन्दिर हमर प्रेमक अछि अवशेष।





२.

जगदीश प्रसाद मण्डल
संगी


वयस्क अवयस्कक सीमापर पहुँचल सुशील सत्तरह बर्ख सात मास पाड़ कए चुकल। पाँच मासक उपरान्त वयस्क भऽ जाएत। शुक्र दिन रहने चारि क्लासक आशासँ समएपर कओलेज विदा भेल। संयोगो नीक, कओलेजक कम्पाउण्डमे पहुँचते घंटी बजल। वर्गमे बैसल बहुतो संगीक बीच सुशीलो। पहिल घंटी फोंक गेल। दोसरो-तेसरो-चारिमो तहिना। एक्को घंटी पढ़ाइ नहि देखि कियो खुशीसँ समए बितबैत तँ कियो बन्द कोठरीमे जेठक दुपहरिया बिनु पंखे बितबैत रहए। ओहिमे सँ एक सुशीलो रहए।

सुशीलक कनैत मन क्लासक कोठरीसँ निकलि डेरा दिशि विदा भेल। कि हमरा सबहक जिनगी, पोखरिक पानि जेकाँ चारु भरसँ घेराएल अछि वा पहाड़सँ निकलैत नदी जेकाँ समुद्र दिशि बढ़ैत अछि।

डेरा ऐलाक उपरान्तो सुशीलक मनमे बेचैनी बढ़िते गेल। उन्मत् सुशील किताब-काँपी रैकपर फेकैत बिनु देहक कपड़ा आ पाएरक चप्पल खोलनहि चौकीपर ओंधरा गेल। जेना मन काबूएमे ने होइ तहिना बेसुधि। पहिल घंटीक पढ़ाइ किअए ने भेल? नजरि दौड़ौलक तँ देखलक जे ओहि विषयक तँ शिक्षके नहि छथि तँ पढ़वितथि के? मनमे हँसी उपकल। मुदा फेरि मन घुमल। बिनु शिक्षकक शिक्षण संस्था कोना चलि सकैत अछि। कि एकरा प्राइवेट संस्थाक बाट खोलब नहि कहबैक? कि सार्वजनिक शिक्षण संस्था बाघक खाल ओढ़ल संस्था ने तँ छी। मन घुसुकि दोसर घंटीक विषयपर पहुँचल। एगारह सए विद्यार्थीक बीच एकटा प्रोफेसर छथि। तहूँमे जहियासँ इन्चार्य भेलाह तहियासँ क्लासक कोन बात जे विभागक स्टाफो रुम छोड़ि प्रिंसिपलेक कुरसीपर बैइसए लगलाह। जहिना ईंटाक देवाल लेटरीन आ कीचेनक दूरी बनबैत तहिना छात्रक पढ़ाइ आ नब वेतनक हिसाव दूरी बनौने। अध खिलल फुल जेकाँ, जेकरा ने कोंढ़ी कहबै आ ने फूल तहिना सुशीलक मन बीचमे पड़ि गेल। मनमे उठलै मधु दइबला माछीकेँ विधाता ओहन डंक किऐक देलखिन। मुदा मन तेसर घंटीक विषयपर गेलइ। तीनि शिक्षक। तहन किअए ने पढ़ाइ भेल। ई तँ ओहन विषय छी जे बिनु पढ़ौने विद्यार्थीकेँ बहुत अधिक कठिनाइ हेतइ। डेरापर नजरि पड़ितहि देखलक जे के ऐहन व्यापारी होएत जे समए पाबि अपन सौदाकेँ महग कऽ नहि बेचत। ऐहन काज तँ वएह बेपारी कऽ सकैत अछि जेकर बेरागी मन होय। मुदा मन ठमकलै। ने आगू बढ़ै आ ने पाछू हटैले तैयार होय। जहिना जीरो डिग्री अंक्षांससँ सूर्ज मकर रेखा दिशि बढ़ैत तँ कर्क रेखा दिशि विपरीत समए हुअए लगैत तहिना तँ ने भऽ रहल छैक। एक दिशि घर-घर शिक्षा आ दोसर दिस सोनो-चानीसँ महग। जहिना गरीबक घरसँ सोनाकेँ दुश्मनी छैक तहिना कि शिक्षोक भेलि जा रहल छैक। मन आगू बढ़ि चारिम घंटीपर पहुँचलै। तीनि शिक्षक तँ अहू विषयक छथि। तहन किऐक ने पढ़ाइ भेल? एक गोटे सीनेटक चुनावक तिकड़ममे लागल छथि मुदा तइओ तँ दू गोटे छथिये। एक गोटे तेरहम दिन रिटायर करताह। मनमे खुशी उपकलै। जहिना मरै समए किछु दिन लोक दुनियाँसँ कारोबार समेटि घरक ओछाइन धड़ैत अछि तहिना तँ हुनको धड़ैक चाहिएनि। सोगेसँ रोग होइत अछि। तेरहे दिनक उत्तर दरमाहा आधा भऽ जेतनि। समए तँ एहिना, जहिना बिनु पढ़ौने, कौलेज नहि अएने बीतितनि छन्हि। तेँ सोग होएव अनिवार्य आ काज नहि करब आवश्यक छन्हिये। मुदा तेसर तँ एहि सभसँ अलग छथि। ओ किअए ने ऐलाह। नजरि दौड़बितहि देखलक जे ओ तँ सप्ताहमे एक दिन आवि छबो दिनक हाजरी बनबै छथि। शनि तँ काल्हि छियै आइ कोना अबितथि? एते मनमे अबिते सुशीलक आँखि झलफलाए लगलै। मन खलिआएल बुझि पड़लै। उठि कऽ चप्पलो आ पेंटो-शर्ट खोललक। लूँगी बदलितहि पानि पीवैक मन भेलइ। कोठरीसँ निकलि कलपर हाथ-पाएर-मुँह धोअए गेल। पानि पीवितहि मन हल्लुक बुझि पड़लै। मुदा जहिना खढ़हाएल खेतमे हरबाहकेँ हर जोतब भरिगर बुझि पड़ैत तहिना सुशीलक मन समस्याक बोनाइल रुप देखलक। भगवान रामे जेकाँ कैकेइक मन फेरि सघन जंगल देखैक भेलइ। कओलेजक बीचमे देखि सीमा दिस बढ़ौलक। एक सीमा सर्वोच्च शिक्षण दिस पड़लै तँ दोसर गामक टटघर स्कूलपर। जहिना पहाड़सँ निकलि अनवरत गतिसँ चलि नदी समुद्रमे जाए मिलैत अछि तहिना ने टटघरेक ज्ञान उड़ि कऽ सर्वोच्च ज्ञानक समुद्रमे मिलत। एते विचार अवितहि गाछसँ गाछ टकराइत आगिक लुत्तीकेँ छिटकैत देखलक। ई लुत्तीक आगि तँ कोसक-कोस सुखल लकड़ीक संग-संग लहलहाइत फुलल-फड़ल गाछकेँ सेहो जरा दैत अछि। जहिना सघन बनमे रस्ताक ठेकान नहि रहैत तहिना सुशील कोनो रस्ते ने देखए। मन अपन उमेरपर गेलइ। सत्तरह बर्खसँ उपर। अठारहमक बीच। अठारह बर्ख पुरलापर चेतन भऽ जाएव। मुदा हमर चेतना कहिया जागत जे बाहरी दुनियाँकेँ अंगीकार करब। आकि देखि कऽ छोड़ि देब। स्कूल-कओलेजक पढ़ाइक तँ वएह गति अछि। जहिना एक-एक ईंटा जोड़ि बिशाल अट्टालिका बनैत तहिना ने कने-कने सीखि बाल चेतनाकेँ पैघ बना सकै छी। ई के करत? ई तँ अपनहि केने होएत। मन शान्त भेलइ। नजरि देलक गामक ओहि बच्चापर जे माएक मुँहसँ लुखी सीखैत अछि मुदा स्कूलमे प्रवेश करितहि गिलहरीसँ भेंट भऽ जाइ छैक। कि हमर मातृभाषा गामो धरि नहि अछि। कि हिमालय पहाड़सँ गंगा कूदि-कूदि रास्ता टपि समुद्रमे पहुँचैत अछि आकि नीच-उपरक रास्ता टपैत समुद्रमे पहुँचैत अछि। ज्ञान-कर्मक बीच भक्ति होएत। कि बच्चा कर्मरुपी माएसँ सीखि ज्ञान रुपी गुरुसँ मिलि पवैत अछि। जँ से नहि तँ माए-बाप गुरु कोना? गामक स्कूलसँ नजरि हटि मिड्ल स्कूल आ हाइ स्कूलपर पहुँचलै। कतौ हाइ स्कूलसँ क्लास काटि मिड्ल स्कूलमे जोड़ाइत अछि तँ कतौ कओलेजक क्लास हाइ स्कूलमे। जहिना क्लास तँ कटि कऽ चलि अबैत तहिना शिक्षको अबैत। पढ़निहार तँ विद्यालय पैदा कऽ दैत मुदा पढ़ौनिहार कोना........। आगू बढ़ैत सुशीलक मन कओलेजमे नहि अँटकि विश्वविद्यालय पहुँच गेल। मनमे उठल जिनगीक पाँचम (भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्साक उपरान्त) आवश्यक शिक्षा छी। ओना शिक्षक संस्था अनन्त अछि। मुदा एक सीमाक भीतर सेहो अछि। कियो अपना डेरापर किताब उलटा प्रश्नक जबाब अपन परीक्षाक कॉपीमे लिखैत अछि तँ कियो पढ़ाइक अभावमे प्रश्न पत्रो ठीकिसँ नहि बुझि पबैत अछि। कि एहि दौड़मे के आगू बढ़त? कियो मार्कसीटे कीनि लैत अछि। कि शिक्षा सन समस्याकेँ बेदरा-बुदरीक खेतमे बनाओल गरदा-गुदरीक घर-आंगन छी? चिन्तासँ मातल सुशील निराश भऽ ओछाइनपर ओंघरा गेल। चिन्ताक बनमे चिन्तनक गाछ कतौ देखवे ने करए जहिसँ आशाक फल देखैत। सुतल शरीर आरो सुति रहल।

अकलबेराक समए। कओलेजसँ आबि बसन्ती कोठरीमे किताव-कापी रखि सोझे माए लग पहुँचल। जलखैक छिपली बसन्तीक आगूमे बढ़बैत बाजलि- ‘‘बुच्ची, उदास किअए छह?’’

अपनाकेँ छिपबैत बसन्ती बाजलि- ‘‘नहि, नहि। उदास कहाँ छी?’’

बसन्ती अपन वसन्ती बहारकेँ छिपबैक कोशिश करैत मुदा जहिना शरीरक रोग तरे-तर बिसविसाइत रहैत अछि तहिना मनक रोग बसन्तीकेँ। मनमे नचैत कओलेजक पढ़ाइ आ अपन जिनगी। सुशील आ बसन्ती संगे पढ़ैत। पढ़ाइ नहि हेवाक सोगसँ सोगाएल बसन्ती माएसँ आगू गप्प नहि बढ़ा विस्कुट खा चाह पीवि चुपचाप अपन कोठरीमे आबि उतान भऽ ओंघरा गेल। सिरमापर माथ देने दुनू बाँहि समेटि कऽ मोड़ि छातीपर रखि अपन जिनगी दिस ताकए लगल। आजुक शिक्षा लऽ कऽ की करब? माए-बापक संग जे अन्याय भऽ रहल अछि कि ओ एक इमानदार बेटीक दायित्व नहि बनैत जे आगूमे आबि ठाढ़ हुअए। आजुक शिक्षाक रुप ऐहन बनि गेल अछि जे सरकारी स्कूल-कओलेजमे पढ़ाइ नहि भऽ रहल अछि। तहिपर एते महग शिक्षा भऽ गेल अछि जे अपन बेटा-बेटीक शिक्षा लेल अपन जिनगी तोड़ि, खूनक घूँट पीवि कऽ जीवन-बसर करैत छथि। जेकर परिणाम कि भेटैत छन्हि तँ जेहो अपन बनाओल वा पूर्वजक देल जे सम्पत्ति रहैत छन्हि बेटी विआह करबैमे देमए पड़ैत छन्हि। देख रहल छी जे बीस लाख रुपैया खर्च कए डाक्टरीक शिक्षा पबैत छथि। हुनकर विवाहक लेल सेहो बीस लाख चाही। हम ओहि डॉक्टर सभसँ पूछै छिअनि जे देशक प्रथम श्रेणीक नागरिक होइतहुँ अपन अन्याय नहि रोकि सकैत छी तँ कि अहाँसँ आशा कएल जा सकैत अछि जे माघक शीतलहरीमे जाड़-भूखसँ ठिठुरल बच्चाकेँ जीबैक उपाए कऽ सकबैक। मन आगू बढ़ि अपनापर एलै। बी.ए. पास कऽ शिक्षिका बनब। पति या तँ किसान, व्यापारी वा नोकरिहरे किऐक ने होथि महिलाक संग जे असुरक्षा बढ़ि रहल अछि एहिमे कते गोटे अपनाकेँ सुरक्षित बुझि रहल छथि। कि काओलेज हाइ स्कूलक विद्यार्थी अपन गुरु अध्यापिकाक संग ओहने नजरिसँ देखैत अछि जहि नजरिसँ अध्यापककेँ। कि अदौसँ अबैत हमर धरोहर (संयुक्त परिवार सामाजिक ढ़ाँचा) गाछसँ खसल पाकल कटहर जेकाँ आँठी उड़ि कतौ, कोवा उड़ि कतौ, कमड़ी खोइचा थौआ भेलि एकठाम आ नेरहा ओंघराइत कतौ, तहिना आँखिक सोझमे नष्ट भऽ जाएत। एहि दुखद घटनाक जबावदेह के? गामक बच्चाकेँ स्कूलसँ लऽ कऽ स्कूल कओलेज धरि एते तरहक गाड़ीक अवाज सऽ लऽ कऽ लाउडस्पीकरक अवाज धरि गनगनाइत अछि जहिठाम गप-सप्प करब कठिन भऽ गेल अछि तहिठाम पढ़ाइक की दशा होएत।

एत्ते बात मनमे उठैत-उठैत परा-अपराक क्षितिजपर बसन्ती अँटकि गेल। जहिना शिशिर-ग्रिष्मक बीच बसन्तक सुआगत गाछपर बैसि कोइली अपन जुआनीसँ इठलाइत राग-तानसँ करैत अछि तहिना बसन्तीक सुआगतक लेल होरी खेलाइत राधा-कृष्ण सेहो वृन्दावनमे प्रतीक्षा कए रहल छन्हि। अबीर उड़बैत राधा अपन पौरुस देखबैत अखाड़ाक माटि लऽ हाथ मिलबए चाहैत छथि तँ कृष्ण पाछु घुसकैत पिचकारीक निशान साधि कखनो गुलाबी रंग फैकए चाहैत तँ कखनो हरियरका। आँखिपर नजरि पड़ितहि तँ कारी रंग मनमे अबनि। मुदा निशाने साधै-साधैक बीच राधा सतरंगा अबीर मुँहपर फेकि देलकनि। मुँहपर अबीर पड़ितहि दुनू हाथे कृष्ण मुँह-कान पोछए लगलथि। आकि हाथसँ पिचकारी खसितहि राधा आगू बढ़ि दुनू बाँहि पसारि हृदयसँ लगवैत विहृल भऽ निराकार-साकारक बीच दुनू हँसए लगलथि। नमहर साँस छोड़ैत बसन्तीक मनमे उठल एहि धरतीपर किछु करैक लेल संगीक जरुरत अछि। जाधरि पुरुष-नारी मिलि अपन समस्याक लेल अपन पौरुषकेँ नहि जगाओत ताधरि सपना साकार कोना भऽ पवैत अछि।

ओछाइनसँ उठितहि सुशील सूर्यक किरिणकेँ देखए लगल। देवालक एक छोट भूर देने रोशनी कोठरीमे प्रवेश करैत। सूर्यक ओ रुप नहि जहिठाम आँखि नहि टिकैत। मुदा कोठरीक रोशनी ओहन नहि। पातर-कोमल। गनलो जा सकैत। बिजलोका जेकाँ सुशीलक मनमे उठल पुरुष-नारीक बीच सृष्टि निर्माण करैक शक्ति अछि तहन जँ ओ नान्हि-नान्हिटा समस्यामे ओझरा जाए, कतेक लाजिमी छियैक। कोठरीसँ निकलि सुशील बसन्ती ऐठाम विदा भेल।

अपन कोठरीमे बैसल बसन्ती एक कोनपर किताबक अछि आकि पढ़निहार, पढ़ौनिहारक वा मशीन चलौनिहारक मन भङठि गेल अछि। एते बात मनमे उठिते सुशीलक आँखिक आगू अन्हार पसरि गेल। मुदा इजोतसँ अन्हारमे गेलापर जत्ते अन्हार बुझि पड़ैत ओहिसँ कम अन्हार अन्हारमे रहनिहारकेँ लगैत। ततबे नहि अन्हारोमे झलफली इजोत बुझि पड़ैत अछि। सुशीलोक अन्हार मनसँ छँटल अपन छात्रावाससँ आगू बढ़ैक विचार उठल।

प्रात भने क्लासक संगी बसन्ती ऐठाम पहुँचल। टेबुलक एक कोणपर किताब गेटि कऽ राखल। एकटा किताब आ कापी आगूमे पसड़ल आ पेन सेहो खेलि कऽ राखल मुदा कुरसीपर ओंगठि आँखि बन्न केने बसन्ती अपन बसन्ती बहारपर नजरि अँटकौने रहए। जहिना बसन्त साले-साल अबैत आ जाएत अछि तहिना कि मनुष्योक जिनगीमे बसन्त अबैत आ जाएत अछि? कथमपि नहि। मनुष्यक जिनगी तँ ओहन होएत अछि जहिमे बसन्त ऐलापर पुनः जाइत नहि। दिनानुदिन बढ़ैत-बढ़ैत समुद्र जेकाँ महा बसन्त बनि जाइत अछि। एते बात मनमे अवितहि देह चौंकि गेलनि। हृदय सिहरए लगलनि। मुदा अपनाकेँ संयत करैत धियान बसन्त ऋृतुपर देलनि। ऋृतुपर नजरि पड़ितहि देखलनि जे एकठाम फसल लगल चौरस खेत, सुन्दर-सुन्दर गाछसँ सजल बगीचा जहिपर खोंता लगा रंग-बिरंगक चिड़ै अपन मधुर स्वरसँ बसन्तक सुआगत करैत अछि। तँ दोसर कोसीक बाढ़िसँ नष्ट भेल ओ इलाका जहिमे बालुसँ भरल ढ़िमका-ढ़िमकी बनल खेत, गाछ विरीछक अभाव देखि कनैत चिड़ै रहैक ठौरक दुआरे छोड़ि पड़ा गेल कि ओहिठाम चैत-वैशाखकेँ बसन्त ऋृतु नहि कहल जाइत अछि? अथाह समुद्रमे बसन्ती कखनो उगए तँ कखनो डूबैत रहए। अनायास नोरसँ आँखि ढबढ़बा गेलनि। नोर केहन? दुखक आकि क्रोधक। आँचरसँ बसन्ती नोर पोछितहि रहति कि सुशील कोठरीक दरबज्जापर सँ बाजल- ‘‘बसन्ती।’’

बसन्ती कानमे पड़ितहि धड़फड़ा कऽ कुरसीसँ उठि दुनू हाथ आगू बढ़बैत बसन्तीक मुँहसँ निकलल- ‘‘सुशील।’’

कहि कहि अपन कुरसीपर बैसाए अपने बगलक कुरसीपर बैसि पूछलि- ‘‘पढ़ाइ-लिखाइक की हाल-चाल?’’

सुशील- ‘‘कॉलेज छोड़ैक विचार भऽ रहल अछि।’’

सुशीलक बात सुनि अकचका कऽ बसन्ती पूछलक- ‘‘किअए?’’

- ‘‘कओलेज सहित शिक्षाक जे दुरगति देखि रहल छी ओहिसँ मन दुखी भऽ रहल अछि। उपरी ढाँचा किछु देखि रहल छी आ भीतरी किछु आर छैक।’’

सुशीलक बात सुनि बसन्ती बाजलि- ‘‘सिर्फ अहींटा दुखि छी आकि आरो गोटे छथि।’’

बसन्तीक बात सुनि सुशीलक विचार ठमकल। मुँहसँ निकलल- ‘‘अखन धरि जे देखलहुँ ओहिमे नगण्य दुखी भेटलाह आ अधिकांशकेँ कोनो गम नहि।’’

‘‘किछु तँ भेटलाह?’’


‘‘मुदा ओ कहिया तक संग रहताह ऐकर कोन ठीक। जँ रस्तेसँ घुरि जाथि वा हलवाइक कुकुड़ जेकाँ रसगुल्ला-जिलेवीक रस चाटए लगथि।’’

‘‘अहाँ जे कहलौं ओकरो हम नहि कटै छी मुदा एकर अतिरिक्तो किछु छैक?’’

‘‘से की?’’

‘‘जँ पुरुष नारी मिलि सृष्टिक निर्माण कऽ सकैत अछि तँ कि कोनो व्यवस्थाकेँ नहि बदलि सकैत अछि।’’

‘‘बदलि सकैत अछि मुदा ओकरा लेल.....।’’

‘‘हँ। ओकरामे पौरुष चाही। पौरुष सिर्फ पुरुखेक धरोहर नहि मनुष्य मात्रक छी। गललसँ गलल आ सड़लसँ सड़ल व्यवस्थाकेँ हमहीं-अहाँ ने संग मिलि बदलि सकै छी।

वसन्तीक बात सुनि, नमहर साँस छोड़ैत सुशील बाजल- ‘‘ओहन संगी कत्तऽ भेटत?’’

‘‘संकल्प स्थलपर।’’ बसन्ती बाजलि।

‘‘ओ स्थल कतए अछि?’’

‘‘दुनियाँक एक-एक इंच जमीनपर।’’

‘‘संकल्पक विधान की?’’

‘‘आत्माक मिलन।’’ कहि दुनू गोटे दहिना हाथ मिला संग-संग जीवन जीवाक बचन एक-दोसरकेँ देलक।